तीन तलाक पर ये कहता है कुरान, पुरुष ही नहीं स्‍त्रियों को भी दिए हैं कई हक, लेकिन..?

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सर्वोच्च न्यायालय में दाख़िल एक याचिका पर सुनवाई और भारत सरकार द्वारा न्यायालय में अपना पक्ष रखने के बाद देश में तीन तलाक का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। इस देशव्यापी बहस में लगभग तमाम मुल्ले-मौलवी अपने-अपने तर्कों के साथ तीन तलाक की वर्तमान व्यवस्था के समर्थन में खड़े हैं और भारत सरकार के अलावा मुसलमानों का एक बहुत थोड़ा-सा हिस्सा इसके विरोध में।

INDIA-RELIGION-MARRIAGE-WOMEN-RIGHTS

मैं शरियत या इस्लामी मज़हबी मामलों का कोई जानकार तो नहीं हूं, लेकिन मैंने पवित्र क़ुरान का जितना अध्ययन किया है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि तीन तलाक की व्यवस्था क़ुरान की हिदायतों के विपरीत और ग़ैर-इस्लामी है।

दरअसल, क़ुरान ने समाज में स्त्रियों की गरिमा, सम्मान और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बहुत सारे प्रावधान किए हैं। तलाक के मामले में भी इतनी बंदिशें लगाईं गई हैं कि अपनी बीवी को तलाक देने के पहले मर्दों को सौ बार सोचना पड़े। कुरान में तलाक को न करने लायक काम बताते हुए इसकी प्रक्रिया को कठिन बनाया गया है, जिसमें रिश्ते को बचाने की आख़िरी दम तक कोशिश, पति-पत्नी के बीच संवाद, दोनों के परिवारों के बीच बातचीत और सुलह की कोशिशें और तलाक की इस पूरी प्रक्रिया को एक समय-सीमा में बांधना शामिल हैं।

सूरह निसा के अनुसार अगर औरत की नाफ़रमानी और बददिमागी का खौफ़ हो तो उसे नसीहत करो और अलग बिस्तर पर छोड़ दो। अगर किसी औरत को अपने शौहर की बददिमागी और बेपरवाही का खौफ़ हो तो बीवी को भी शौहर को मौका देना चाहिए, न कि फ़ौरन कोई फ़ैसला करना चाहिये। घर को बरबादी से बचाने के लिए अगर उसके हक मे कोई कमी हो तो उसे भूल कर हर हाल मे घर को बचाने की कोशिश करनी चाहिए। अगर शौहर बीवी की सारी कोशिशें नाकाम हो जाएं, तो भी तलाक देने मे जल्दबाज़ी की जगह एक और रास्ता यह है कि दोनों के खानदान से एक-एक समझदार और हकपरस्त व्यक्ति को शामिल कर रास्ता निकालना चाहिए।

यही नहीं अगर फिर भी तमाम कोशिशें नाकाम साबित हो जाएं तभी दोनो को एक दूसरे से अलग हो जाने की इजाज़त है। क़ुरान में एकतरफ़ा, एक ही वक़्त में या एक ही बैठक में तलाक देना गैर-इस्लामी माना गया है।

All India Muslim Personal Law Board Press Conference On Triple Talaq Issue

मुझे समझ नहीं आता कि कुरान की व्याख्याओं पर आधारित तीन तलाक का वर्तमान नियम स्त्रियों के प्रति इतना निर्मम क्यों है कि मर्द जब चाहे एक बार में तीन तलाक बोलकर अपनी बीवी को ज़िन्दगी के उसके हिस्से के सफ़र में अकेला और बेसहारा छोड़ दे। कामकाज़ी औरतें अपने प्रयास से शायद इस पीड़ा से उबर भी जाएं, पति पर पूरी तरह आश्रित और बाल बच्चेदार औरतों के लिए तलाक के बाद की ज़िन्दगी कितनी कठिन होती होगी, इसकी कल्पना भी डराती है।

कुछ लोग तलाक के बाद औरत को हासिल होने वाली मेहर की रक़म का हवाला देकर कहते हैं कि उससे औरत अपनी बाकी की ज़िन्दगी का इंतजाम कर सकती है, लेकिन क्या मेहर की छोटी रक़म से भी कहीं ज़िन्दगी कटती है किसी की ? कथित इस्लामी विद्वानों द्वारा तीन तलाक को लागू करते वक़्त क़ुरान की व्याख्या में कहीं कुछ गलती ज़रूर हुई है। यह पुरुषवादी सोच और नज़रिए की वज़ह से हुआ है। ऐसा शायद इसीलिए हुआ है क्योंकि मुसलमानों के तमाम धर्मगुरु और लगभग सारे मुल्ला-मौलवी पुरुष-वर्ग से आते हैं। औरतों का वहां कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं।

यह सही है कि तलाक का यह तरीका बेहद आसान और एकांगी होने के बाद भी अपने देश के मुस्लिमों के बीच तलाक का अनुपात कम है। मात्र 0.5 अर्थात आधा प्रतिशत। शायद हिन्दुओं से भी कम। पढ़े-लिखे और जागरूक मुस्लिम तीन तलाक का प्रयोग शायद ही कभी करते है। इसका प्रचलन अनपढ़ और नशे के आदी लोगों में ही ज्यादा है। इसका प्रयोग बिना आगे-पीछे सोचे क्षणिक गुस्से और भावावेश में ही ज्यादा होता रहा है। इसके बावज़ूद अपने देश में लैंगिक समानता के आदर्श के आलोक में इसमें संशोधन कर इसे कुछ और कठोर बनाने की जरूरत लंबे अरसे से महसूस की जाती रही है।

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बहरहाल, एक बार में तीन तलाक का तरीका आज के समय में अप्रासंगिक ही नहीं, ख़ुद पवित्र क़ुरान की भावनाओं के विपरीत भी है। क्षणिक भावावेश से बचने के लिए तीन तलाक के बीच समय का थोड़ा-थोड़ा अंतराल ज़रूर होना चाहिए। यह भी देखना होगा कि जब निकाह लड़के और लड़की दोनों की रज़ामंदी से होता है, तो तलाक़ का अधिकार सिर्फ़ पुरुष को ही क्यों दिया जाता है? उसमें स्त्री की रज़ामंदी या कम से कम उसके साथ विस्तृत संवाद भी निश्चित तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। यह भी कि निकाह जब दोनों के परिवारों की उपस्थिति में होता है तो तलाक एकांत में क्यों?

क़ुरान के अनुसार भी तलाक तभी जायज़ है जब तलाक देते वक़्त मियां और बीवी दोनों के परिवारों के सदस्य बीच-बचाव के लिए उपस्थित हों और दोनों के बीच सुलह की तमाम कोशिशें असफल साबित हो गई हों। बहुत से इस्लामी देशों में तीन तलाक के अन्यायपूर्ण रिवाज़ को या तो ख़त्म कर दिया गया है, या समय के अनुरूप उसमें कई संशोधन हुए हैं। आगे भी होते रहेंगे। सिर्फ अपने भारत में ही इसे लेकर हठधर्मी है।

वैसे अपने देश में भी अब तीन तलाक के वर्तमान तरीके में सुधार के लिए मुस्लिम औरतों के बीच से ही नहीं, मुस्लिम मर्दों के बीच से भी आवाज़ें उठने लगी हैं। बहुत सारी औरतों ने अपने अधिकार के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली है। देश की मीडिया में भी वे अपनी बातें मजबूती से रखने लगी हैं।

फिलहाल प्रतिरोध का यह स्वर बहुत प्रखर और व्यापक नहीं हैं, लेकिन शिक्षा और जागरूकता बढ़ने के साथ इसमें दिन-ब-दिन इज़ाफा ही होने वाला है। मेरे विचार से सर्वोच्च न्यायालय के किसी फ़ैसले का इंतज़ार किए बगैर देश के इस्लामी विद्वान, क़ुरान और शरिया कानूनों के विशेषज्ञ तथा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधिकारी वक़्त के साथ चलते हुए स्त्रियों के प्रति थोड़ी संवेदनशीलता दिखाएं और क़ुरान की रौशनी में ही अगर तीन तलाक की वर्तमान भेदभावपूर्ण पद्धति में संशोधन की पहल करें तो उनके इस क़दम से मुस्लिम स्त्रियों में सुरक्षित जीवन का भरोसा और आत्मविश्वास ही नहीं पैदा होगा, देश-दुनिया में एक सकारात्मक संदेश भी जाएगा।